अनादि न्यूज़ डॉट कॉम, नई दिल्ली: भारतीय प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का सिद्धांत है- “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम, आतुरस्य विकार प्रशमन च।” मतलब स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और बीमार व्यक्ति के रोग का उपचार करना ही आयुर्वेद है। कोई भी व्यक्ति सेहतमंद तभी रहेगा जब वह नियमों का पूरी निष्ठा से पालन करेगा।
आयुर्वेद मानता है कि किसी भी व्यक्ति के बीमार होने के तीन मुख्य कारण होते हैं। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हेल्थ साइंसेज एंड रिसर्च (आईजेएचएसआर) में भी इसे लेकर लेख प्रकाशित हुआ। इस शोध पत्र में बाह्य और निज वजहों का उल्लेख है, जो मन और शरीर के बीच सामान्य संतुलन की गड़बड़ी से पैदा होता है।
आयुर्वेद के अनुसार, किसी भी बीमारी का मूल कारण हमेशा त्रिदोष या शरीर के द्रव्यों का असंतुलन होता है। बीमारियां अमूमन दो तरह की होती है। एक लाइफस्टाइल संबंधित (एलडी) और दूसरी नॉन कम्युनिकेबल डिजिज (एनसीडी)। इनके तीन कारण – असत्मेंद्रियार्थ संयोग, प्रज्ञाप्रद और परिणाम। अब जब मौसम पल-पल बदल रहा हो तो इनके बारे में जान लेना आवश्यक है।
असत्मेंद्रियार्थ संयोग यानी इन्द्रियों का दुरुपयोग, मतलब सेंसरी ऑर्गन के बीच कुप्रबंधन और भ्रम की स्थिति होना। जब गर्मी चरम पर हो और प्यास लगे तो हमें ठंडा कोला या सॉफ्ट ड्रिंक की बजाय ऐसी चीजों का सेवन करना चाहिए जो गले को ही न तर करे बल्कि पेट के लिए भी सही हो। आयुर्वेद के अनुसार भोजन करने के आठ अलग-अलग सिद्धांत हैं जो प्रकृति (भोजन की प्रकृति), करण (भोजन बनाने की प्रक्रिया), संयोग (विभिन्न भोजन का संयोजन), राशि (मात्रा), देश (स्थान), काल (समय), उपयोग संस्था (भोजन करते समय सावधानियां) और उपयोग (उपयोगकर्ता स्वयं) पर आधारित हैं।
प्रज्ञाप्रद (बुद्धि का दुरुपयोग) का अर्थ है गलत विचारों के साथ गलत कार्य करना, इससे “दोष” उत्पन्न होता है और शरीर में असंतुलन पैदा होता है। आचार्य चरक ने परिणाम का उल्लेख किया है, जिसका आयुर्वेदानुसार अर्थ मौसमी बदलाव से है। काल (समय)- शीत (ठंड), उष्ण (गर्मी) और वर्षा (बारिश) के बीच असंतुलन या अनुपातहीनता से जुड़ा है। इससे स्पष्ट है कि आज जिस तरह का वातावरण है, उसमें बीमारियों का मुकाबला करने के लिए उचित और विवेकपूर्ण संतुलन बनाए रखने की जरूरत है, तभी ‘स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम’ सूक्त चरितार्थ हो पाएगा।